+ केवल आत्मा से उत्पन्न हुआ सुख ही अपूर्व -
(अनुष्टुभ्)
सतताभ्यस्तभोगाना,-मप्यसत् सुखमात्मजम् ।
अप्यपूर्वं सदित्यास्था, चित्ते यस्य स तत्त्ववित् ॥150॥
भोगे भोग निरन्तर अशुभ कल्पना है उनका सुख तो ।
आत्मज सुख ही है यथार्थ, जो जाने वह तत्त्वज्ञ अहो ॥
अन्वयार्थ : जिस मनुष्य के चित्त में ऐसा विचार उत्पन्न हो गया कि निरन्तर भोगे हुए भोगों से पैदा हुआ सुख अशुभ है तथा केवल आत्मा से उत्पन्न हुआ सुख अपूर्व तथा शुभ है; वही पुरुष, भले प्रकार तत्त्व का ज्ञाता है - ऐसा समझना चाहिए, किन्तु उससे भिन्न विपरीत श्रद्धानी, कदापि तत्त्व का ज्ञाता नहीं हो सकता ।