+ अपने स्वरूप को देखना ही समस्त उपदेश का असली तात्पर्य -
(शार्दूलविक्रीडित)
आत्मा स्वं परमीक्षते यदि समं, तेनैव संचेष्टते;
तस्मायेव हितस्ततोऽपि च सुखी, तस्यैव सम्बन्धभाक् ।
तस्मिन्नेव गतो भवत्यविरताऽऽनन्दाऽमृताम्भोनिधौ;
किं चाऽन्यत्सकलोपदेशनिवहस्यैतद्रहस्यं परम् ॥152॥
जब यह निज स्वरूप को देखे, तब निज में ही करे प्रयत्न ।
निज के लिए हितैषी होता, निज से ही करता सम्बन्ध ॥
आनन्दामृत सिन्धु-स्वरूप, स्वयं में ही तब होता लीन ।
इससे अधिक कहें क्या? सब उपदेशों का है सार यही ॥
अन्वयार्थ : जब यह आत्मा, अपने स्वरूप को देखता है, तब स्वयं अपने स्वरूप के साथ ही चेष्टा करता है, अपने स्वरूप के लिए ही हितस्वरूप बनता है, अपने से ही सुखी होता है, अपना ही सम्बन्धी होता है तथा निरन्तर आनन्दरूप अमृत के समुद्रस्वरूप अपने स्वरूप में ही लीन होता है । इस प्रकार समस्त प्रवृत्तियों की आत्मा में जो दृढ़ स्थिति है, यही समस्त उपदेश का असली तात्पर्य है, इससे अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।