
जायन्ते विरसा रसा विघटते, गोष्ठीकथाकौतुकं;
शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति, प्रीतिः शरीरेऽपि च ।
जोषं वागपि धारयत्यविरताऽऽनन्दाऽत्मशुद्धात्मन:;
चिन्तायामपि यातुमिच्छति समं, दोर्षैनः पञ्चताम् ॥154॥
गोष्ठी कथा कुतूहल विघटे, रस नीरस हो जाता है ।
तन के प्रति भी प्रीति विरमती, विषय-वासना मिटती है ॥
वचन मौन धारण कर लेते, मन मृत्यु वरना चाहे ।
अनुभव की क्या बात करें? ये सब होता बस चिन्तन से ॥
अन्वयार्थ : परमानन्दस्वरूप शुद्धात्मा की प्राप्ति तो दूर ही रहो, किन्तु केवल उसकी चिन्ता करने पर ही शृंगारादि रस नीरस हो जाते हैं, स्त्री-पुत्र आदि की चर्चा नष्ट हो जाती है, उनकी कथा और कौतूहल दूर भाग जाते हैं तथा इन्द्रियों के विषय भी सर्वथा नष्ट हो जाते हैं; स्त्री-पुत्र आदि की प्रीति तो दूर ही रहो, शरीर में भी प्रीति नहीं रहती, वचन भी मौन को धारण कर लेता है और समस्त राग-द्वेषादि दोषों के साथ मन भी विनाश को प्राप्त हो जाता है; इसलिए भव्य जीवों को चाहिए कि वे शुद्धात्मा की चिन्ता में निमग्न बने रहें ।