
आत्मैकः सोपयोगो, मम किमपि ततो, नाऽन्यदस्तीति चिन्ता;
भ्यासाऽस्ताऽशेषवस्तोः, स्थितपरममुदा, यद्गतिर्नो विकल्पे ।
ग्रामे वा कानने वा, जनजनितसुखे, निःसुखे वा प्रदेशे;
साक्षादाराधना सा, श्रुतविशदमतेर्बाह्यमन्यत्समस्तम् ॥155॥
मेरा है उपयोगरूप, कुछ अन्य नहीं, इस चिन्तन से ।
मोह तजा है पर से, हर्षित मन नहिं जाए विकल्पों में ॥
वन हो अथवा गाँव सुखद या, दु:खद जगह नहीं भटके मन ।
निर्मल मति की यही साधना, अन्य सभी हैं इससे भिन्न ॥
अन्वयार्थ : दर्शन-ज्ञानमयी आत्मा ही एक मेरा है, इससे भिन्न कोई भी वस्तु मेरी नहीं है; इस प्रकार की चिन्ता से जिस मनुष्य के मन की परिणति, बाह्य पदार्थों से सर्वथा छूट गई है, जिसकी बुद्धि, शास्त्र के अभ्यास से निर्मल हो गई है और जो परमानन्द का धारी है; उस मनुष्य के मन की प्रवृत्ति का विकल्पों से हट जाना, गाँव हो या वन, मनुष्यों को सुख अथवा दुःख उपजाने वाले प्रदेश में भी मन का न जाना, किन्तु निज आत्मा के अनुभव में लीन होना ही उत्कृष्ट आराधना है, इससे भिन्न सब बाह्य हैं, सर्व त्यागने योग्य है ।