
शुद्धं वागतिवर्तितत्त्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं;
शुद्धादेशमिति प्रभेदजनकं, शुद्धेतरत्कल्पितम् ।
तत्राऽद्यं श्रयणीयमेव विदुषा, शेषद्वयोपायत:;
सापेक्षा नयसंहतिः फलवती, संजायते नाऽन्यथा ॥157॥
शुद्धतत्त्व है वचन अगोचर, अन्यतत्त्व वचनों से वाच्य ।
शुद्धादेश शुद्ध का वाचक, नय अशुद्ध है भेदजनक ॥
अत: विज्ञजन शुद्धादेश-अशुद्धनयों से शुद्ध गहें ।
नय-समूह सापेक्ष सफल हैं, अन्य नहीं फलदायक हैं ॥
अन्वयार्थ : शुद्धतत्त्व या शुद्धनय तो वचन के द्वारा कहा नहीं जा सकता, किन्तु उससे भिन्न तत्त्व या व्यवहारनय ही वचन के द्वारा कहा जाता है क्योंकि व्यवहारनय ही शुद्धनय को कहने वाला है, इसलिए उसको शुद्धादेश को कहने वाला भी कहते हैं तथा जो भेद को उत्पन्न करानेवाला है, उसको अशुद्धनय कहते हैं । इस रीति से शुद्ध, शुद्धादेश तथा अशुद्ध के भेद से नय के तीन भेद हुए । उन तीनों में जो शुद्धनय है, वह शुद्धादेश तथा अशुद्धनय के उपाय से प्राप्त होता है; इसलिए विद्वानों को शुद्धनय का ही आश्रय करना चाहिए । यह नियम है कि आपस में एक-दूसरे की अपेक्षा करने वाला ही नयों का समूह, कार्यकारी हो सकता है, परन्तु एकान्त से भिन्न-भिन्न नय नहीं ।