
ज्ञानं दर्शनमप्यशेषविषयं, जीवस्य नाऽर्थान्तरं;
शुद्धाऽदेशविवक्षया स हि तत:, चिद्रूप इत्युच्यते ।
पर्यायैश्च गुणैश्च साधु विदिते, तस्मिन् गिरा सद्गुरो-;
र्ज्ञातं किं न विलोकितं न किमथ, प्राप्तं न किं योगिभि: ॥158॥
सकल वस्तु के ग्राहक दर्शन-ज्ञान जीव हैं अन्य नहीं ।
अत: शुद्धनय की कथनी में, कहें जीव चिद्रूप वही ॥
सद्गुरु वाणी से जिस योगी ने गुण अरु पर्यायों से ।
जान लिया चेतन को, क्या नहिं जाना प्राप्त किया उसने ?
अन्वयार्थ : यद्यपि व्यवहारनय से ज्ञान-दर्शन आत्मा से भिन्न हैं, तथापि शुद्धनय की विवक्षा करने पर समस्त पदार्थों को हाथ की रेखा के समान जानने वाला तथा देखने वाला ज्ञान तथा दर्शन आत्मा से कोई भिन्न वस्तु नहीं है, किन्तु दर्शन-ज्ञान-चेतनास्वरूप ही यह आत्मा है; इसलिए जिन योगियों ने श्रेष्ठ गुरुओं के उपदेश से गुण तथा पर्यायोंसहित आत्मा को जान लिया, उन्होंने समस्त को जान लिया, सबको देख लिया तथा जो कुछ प्राप्त करने योग्य वस्तु थी, उस सबको भी पा लिया ।