
यन्नाऽन्तर्न बहिः स्थितं न च दिशि, स्थूलं न सूक्ष्मं पुान्;
नैव स्त्री न नपुंसकं न गुरुतां, प्राप्तं न यल्लाघवम् ।
कर्मस्पर्शशरीरगन्धगणना, - व्याहारवर्णोज्झितं;
स्वच्छं ज्ञानदृगेकमूर्ति तदहं, ज्योति: परं नाऽपरम् ॥159॥
जो भीतर-बाहर चहुं दिशि में, सूक्ष्म और स्थूल नहीं ।
पुरुष-नपुंसक-स्त्री भी नहिं, गुरुता-लघुता प्राप्त नहीं ॥
कर्म-स्पर्श-शरीर-वर्ण-गणना अरु शब्द आदि से भिन्न ।
निर्मल दर्शन-ज्ञान-मूर्ति मैं, ज्योति वही नहिं उससे भिन्न ॥
अन्वयार्थ : न मैं अन्दर हूँ, न बाहर हूँ और न अन्यत्र किसी दिशा में हूँ; न मोटा हूँ, न पतला हूँ; न पुरुष हूँ, न स्त्री हूँ, न नपुंसक हूँ; न भारी हूँ, न हल्का हूँ और मेरा न कर्म है, न स्पर्श है, न शरीर है, न गन्ध है, न संख्या है, न शब्द है, न वर्ण है तथा जो अत्यन्त स्वच्छ तथा ज्ञान-दर्शनमयी मूर्ति की धारक ज्योति है, वही मैं हूँ और उससे भिन्न कोई नहीं हूँ ।