
जानन्ति स्वयमेव यद्विमनस:, चिद्रूपमानन्दवत्;
प्रोच्छिन्ने यदनाद्यमन्दमसकृत्, मोहान्धकारे हठात् ।
सूर्याचन्द्रमसावतीत्य यदहो, विश्वप्रकाशात्मकं;
तज्जीयात्सहजं सुनिष्कलमहं, शब्दाऽभिधेयं मह: ॥160॥
जो अनादि का मोह-महातम, निजबल से है नाश किया ।
मन-विहीन केवलज्ञानी ने, चिदानन्द-घन जान लिया ॥
सूर्य-चन्द्र को फीका करता, जिसका विश्व-प्रकाशक तेज ।
अशरीरी अरु 'मैं' से वाच्य, सदा जयवन्त रहे वह तेज ॥
अन्वयार्थ : अनादिकाल से विद्यमान तथा गाढ़ मोहरूपी अन्धकार को तप के द्वारा सर्वथा नाश कर, आनन्द के धारी जिस चैतन्यरूपी तेज को केवलज्ञान के धारी पुरुष, अपने आप जान लेते हैं । जो चैतन्यरूपी तेज, सूर्य-चन्द्रमा के तेज को फीका करने वाला है, समस्त पदार्थों को भलीभाँति प्रकाशित करने वाला है, जिसका 'मैं' इस शब्द से अनुभव होता है तथा जो स्वाभाविक है - ऐसा वह चैतन्यरूपी तेज सदाकाल जयवन्त रहो ।