+ गुरुओं के सन्तापनाशक वचन ही आश्रयणीय -
(शार्दूलविक्रीडित)
धिक् कान्तास्तनमण्डलं धिगमल,-प्रालेयरोचि: करान्;
धिक् कर्पूरविमिश्रचन्दनरसं, धिक् ताञ्जलादीनपि ।
यत्प्राप्तं न कदाचिदत्र तदिदं, संसारसन्तापहृत्;
लग्नं चेदतिशीतलं गुरुवचो, दिव्याऽमृतं मे हृदि ॥162॥
धिक् कान्ता के कुचमण्डल को, धिक् है निर्मल चन्द्र-किरण ।
धिक् कर्पूर मिश्र चन्दन रस, धिक् जल आदि वस्तु शीतल ॥
यदि मेरे उर में बसते हैं, अति शीतल गुरु-वचनामृत ।
जिन्हें प्राप्त नहिं किया आज तक, जो संसार-ताप-नाशक ॥
अन्वयार्थ : संसार में यह बात भलीभाँति प्रचलित है तथा अज्ञानी मनुष्य इस बात को मानते भी हैं कि यदि किसी प्रकार का सन्ताप हो जाए तो उस सन्तप्त प्राणी को स्त्री के स्तनों के स्पर्श से तथा चन्द्रमा की किरण आदि के सेवन से इस सन्ताप को दूर कर देना चाहिए, परन्तु ज्ञानी मनुष्य, इस बात को नहीं मानता तथा इससे विपरीत ही विचार करता है (वह कहता है कि जिसकी कभी भी प्राप्ति नहीं हुई है), जो संसार के सब दुःखों को दूर करने वाले हैं और जो अत्यन्त शीतल हैं - ऐसे श्री गुरुओं के वचन यदि मेरे मन में मौजूद हैं तो मनुष्य, जिनको शीतल करने वाले कहते है - ऐसे स्त्री के कुचों को धिक्कार है, चन्द्रमा की शीतल किरणों को धिक्कार है, कर्पूर मिले हुए चन्दन के रस को धिक्कार है तथा जल आदि को भी धिक्कार है ।