+ शुद्धात्मा की परिणतिस्वरूप धर्म में मग्न हुए योगियों को नमस्कार -
जित्वा मोहमहाभटं भवपथे, दत्तोग्रदुःखश्रमे;
विश्रान्ता विजनेषु योगिपथिका, दीर्घे चरन्तः क्रमात् ।
प्राप्ता ज्ञानधनाश्चिरादभिमत,-स्वात्मोपलम्भालयं;
नित्यानन्दकलत्रसंगसुखिनो, ये तत्र तेभ्यो नम: ॥163॥
अति दु:खदायक भव-पथ में, जो महामोह भट को जीतें ।
जो योगी विचरें वन में, विश्रान्ति लहें एकान्त बसें ॥
हो सम्पन्न ज्ञान-धन से निज, आत्माश्रित शिवपद पाते ।
नित्यानन्द सादि-सुख भोगें, उन चरणों में हम नमते ॥
अन्वयार्थ : योगीश्वररूपी पथिक, अत्यन्त दुःख को देने वाले संसाररूपी विशाल मार्ग में विचरते हुए, समस्त ज्ञानादि धन को चुराने वाले मोहरूपी योद्धा को जीत कर, निर्जन स्थान में विश्राम करते हैं, ज्ञानरूपी धन के स्वामी हैं और जिसका कभी भी नाश नहीं होने वाला है - ऐसे आत्मिक सुखरूपी स्त्री के संग से सदा सुखी हैं तथा अपने आत्मस्वरूप की जहाँ पर प्राप्ति होती है, ऐसे स्थान में विराजमान हैं; अत: ऐसे योगियों को मैं नमस्कार करता हूँ ।