
इत्यादिर्धर्म एषः, क्षितिपसुरसुखाऽनर्घ्यमाणिक्यकोषः;
प्रायो दुःखाऽनलानां, परमपदलसत्, सौधसोपानराजिः ।
एतन्माहात्म्यमीशः, कथयति जगतां, केवली साध्वधीता;
सर्वस्मिन् वाङ्मयेऽथ, स्मरति परमहो, मादृशस्तस्य नाम ॥164॥
है यह धर्म नरेन्द्र-इन्द्र के सुख, अमूल्य रत्नों की खान ।
यह दुखाग्नि के लिए नीर-सम, मोक्षमहल का शुभ सोपान ॥
अहो! धर्म की महिमा वर्णन, साक्षात् केवलि भगवान ।
सर्वागमधर गणधर करते हैं, हम तो ले सकते हैं नाम ॥
अन्वयार्थ : पूर्व में जो दया आदि पाँच प्रकार का धर्म कहा है, वह धर्म, बड़े-बड़े चक्रवर्ती आदि राजाओं तथा इन्द्र, अहमिन्द्र आदि के सुखों को देने वाला है । वह धर्म, समस्त दुःखों को मूल से नाश करने वाला और निर्वाणरूपी महल में चढ़ने के लिए सीढ़ी के समान है अर्थात् जो मनुष्य, धर्म को धारण करता है, उनको मोक्ष की प्राप्ति होती है - ऐसे उस धर्म के माहात्म्य का वर्णन, साक्षात् केवली अथवा समस्त द्वादशांग के पाठी गणधर ही कर सकते हैं, परन्तु मेरे समान मनुष्य तो केवल उसके नाम का ही स्मरण कर सकते हैं ।