+ धर्म का उत्तरोत्तर दुर्लभपना -
नष्टं रत्नमिवाऽम्बुधौ निधिरिव, प्रभ्रष्टदृष्टेर्यथा;
योगो यूपशलाकयोश्च गतयोः, पूर्वाऽपरौ तोयधी ।
संसारेऽत्र तथा नरत्वमसकृद्, दुःखप्रदे दुर्लभं;
लब्धे तत्र च जन्म निर्मलकुले, तत्रापि धर्मे मतिः ॥166॥
यथा उदधि में रत्न गिरे अरु, दृष्टिहीन नर निधि पायें ।
पूर्वापर दिशि दो काष्ठ खण्ड, बह कर फिर से वे मिल जायें ॥
तथा निरन्तर दु:खदायक, इस जग में नरभव दुर्लभ है ।
यदि मिल जाये तो उत्तम कुल, धर्मबुद्धि अति दुर्लभ है ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार अथाह समुद्र में यदि रत्न गिर जाए तो उसका मिलना बहुत कठिन है, जिस प्रकार अन्धे को निधि मिलना अत्यन्त दुर्लभ है तथा समुद्र में किसी स्थान पर दो काष्ठ खण्डों में से एक को पूर्व दिशा की ओर तथा दूसरे को पश्चिम दिशा की ओर बहा देवें, फिर उनका उसी स्थान पर पुन: मिलना, जिस प्रकार दुःसाध्य है; उसी प्रकार निरन्तर नाना प्रकार के दुःखों के देने वाले इस संसार में मनुष्य जन्म का पाना बहुत कठिन है । यदि दैवयोग से मनुष्य जन्म भी मिल जाए तो फिर उत्तम कुल मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । यदि किसी कारण उत्तम कुल की प्राप्ति भी हो जाए तो फिर धर्म में श्रद्धा होना, अत्यन्त दुःसाध्य है; इसलिए भव्य जीवों को अत्यन्त दुर्लभ धर्म की उपासना अवश्य करनी चाहिए ।