
जन्म प्राप्य नरेषु निर्मलकुले, क्लेशान्मतेः पाटवं;
भक्तिं जैनमते कथं कथमपि, प्रागर्जितश्रेयसः ।
संसाराऽर्णवतारकं सुखकरं, धर्मं न ये कुर्वते;
हस्तप्राप्तमनर्घ्यरत्नमपि ते, मुञ्चन्ति दुर्बुद्धयः ॥169॥
नरभव पाकर उत्तम कुल अरु, कष्ट-साध्य बुद्धि को पा ।
पूर्वाेपार्जित पुण्योदय से, जिन-शासन की भक्ति पा ॥
किन्तु भवोदधि-तारक, सुखदायक जो धर्म नहीं करते ।
हस्त प्राप्त बहुमूल्य रत्न को, ये दुर्बुद्धि खो देते ॥
अन्वयार्थ : जो मनुष्य, अत्यन्त कठिन मनुष्य जन्म को पाकर, उत्तम कुल को पाकर तथा किसी प्रकार पूर्व काल में उपार्जित किये हुए पुण्य के उदय से जैनधर्म के भक्त होकर भी संसार-समुद्र से पार करने वाले तथा नाना प्रकार के सुख देने वाले धर्म की सेवा नहीं करते हैं, वे मूर्ख, हाथ में आये हुए अमूल्य रत्न को छोड़ देते हैं ।