
तिष्ठत्याऽऽयुरतीव दीर्घखिलाऽन्यङ्गानि दूरं दृढा-;
न्येषा श्रीरपि मे वशं गतवती, किं व्याकुलत्वं मुधा ।
आयत्यां निरवग्रहो गतवया, धर्मं करिष्ये भरात्;
इत्येवं बत चिन्तयन्नपि जडो, यात्यन्तकग्रासताम् ॥170॥
अभी बहुत दिन जीना मुझको, सभी अंग मेरे मजबूत ।
लक्ष्मीजी की कृपा बहुत है, फिर मैं क्यों होऊँ व्याकुल ॥
जब वृद्धावस्था आएगी, तभी करूँगा धर्म-प्रयत्न ।
मूढ़ ग्रास बनता है यम का, इस प्रकार करके चिन्तन ॥
अन्वयार्थ : 'अभी मेरी आयु बहुत है, हाथ-पैर, नाक-कान आदि भी मजबूत हैं तथा लक्ष्मी मेरे पास विद्यमान है, इसलिए व्यर्थ धर्मादि के लिए क्यों व्याकुल होना चाहिए? किन्तु इस समय तो आनन्द से भोगों को भोगना चाहिए, भविष्य में जिस समय वृद्ध हो जाऊँगा, उस समय निश्चय कर अच्छी तरह धर्म का आराधन करूँगा', इस प्रकार विचार करता-करता ही मूर्ख मनुष्य मर जाता है; इसलिए विद्वानों को चाहिए कि 'मृत्यु, सदा शिर पर छाई हुई है' - इस विचारपूर्वक निरन्तर धर्म की आराधना करें ।