
आजातेर्नस्त्वमसि दयिता, नित्यमासन्नगासि;
प्रौढाऽस्याशे किमथ बहुना, स्त्रीत्वमालम्बिताऽसि ।
अस्मत्केशग्रहणमकरोत्, अग्रतस्ते जरेयं;
मर्षस्येतन्मम च हतके, स्नेहलाऽद्यापि चित्रम् ॥172॥
री तृष्णा! तू हमें जन्म से, प्यारी नित्य निकट रहती ।
वृद्धिंगता, अधिक क्या कहना? तुम्हीं हमारी प्रिय रमणी ॥
किन्तु जरा-नारी ने मेरे, केशों को है ग्रहण किया ।
यह अपमान सहन करके भी, बनी हमारी स्नेहमना ॥
अन्वयार्थ : हे तृष्णे! आजन्म से तू हमारी प्रिया है, तू सदा हमारे साथ रहने वाली है, तू प्रौढ़ा है और अधिक कहाँ तक कहा जाए, तू साक्षात् हमारी स्त्री ही है; परन्तु 'अरे दुष्टे! तेरे सामने भी इस जरा ने हमारे केश पकड़ लिये हैं तो भी तू सहन करती है, लेकिन फिर भी तू हमें प्यारी है' - यह बड़े आश्चर्य की बात है ।