
रंकायते परिवृढोऽपि दृढोऽपि मृत्यु-;
मभ्येति दैववशतः क्षणतोऽत्र लोके ।
तत्कः करोति मदमम्बुजपत्रवारि-;
बिन्दूपमैः धनकलेवरजीविताऽद्यैः ॥173॥
राजा रंक बने क्षण भर में, बलशाली मृत्यु को प्राप्त ।
नीर-बिन्दु सम तन-धन-जीवन, कौन सुधी करता अभिमान ?
अन्वयार्थ : जो मनुष्य, संसार में धनी है, वह क्षण भर में रंक हो जाता है; जो रंक है, वह पल भर में धनी हो जाता है तथा जो बलवान् दिखता है, वह दैवयोग से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है; इसलिए ऐसा कौन बुद्धिमान होगा, जो धन-शरीर-जीवन आदि को कमल के पत्ते पर स्थित जल की बूँद के समान विनाशीक जान कर भी मद करेगा ?