
प्रातर्दर्भ-दलाऽग्र-कोटि-घटिता,-ऽवश्यायबिन्दूत्कर-;
प्रायाः प्राण-धनाऽङ्गज-प्रणयिनी,-मित्रादयो देहिनाम् ।
अक्षाणां सुखमेतदुग्र-विषवत्, धर्मं विहाय स्फुटं;
सर्वं भङ्गुरमत्र दुःखदमहो, मोहः करोत्यन्यथा ॥174॥
प्रातकाल में डाभ पत्र के, अग्रभाग-जल-बिन्दु समान ।
प्राण-पुत्र-धन-नारी-मित्रादिक इन सबको अस्थिर जान ॥
इन्द्रिय-सुख हैं कालकूट विषसम दु:खदायक यह स्पष्ट ।
धर्म सिवा सब क्षणभंगुर है, किन्तु जीव करता अनुराग ॥
अन्वयार्थ : संसार में प्राणियों के प्राण-हाथी-स्त्री-मित्र-पुत्र आदि सभी प्रातःकाल में दर्भ के पत्ते के अग्र भाग पर लगी हुई ओस की बूँद के समान चंचल हैं । इन्द्रियों से उत्पन्न सुख भयंकर जहर के समान हैं । एक धर्म ही अविनाशी सुख को देने वाला है, किन्तु धर्म से भिन्न समस्त वस्तुएँ क्षण भर में विनाशीक तथा दुःख देने वाली हैं । लेकिन यह मोह, अन्यथा ही विकल्प करता है अर्थात् जो वस्तु, नित्य तथा सुख की देने वाली है, वह मोह के उदय से अनित्य तथा दुःख की देने वाली मालू पड़ती है और जो वस्तुएँ, अनित्य तथा दुःख की देने वाली हैं, वे मोह के उदय से नित्य तथा सुख की देने वाली जान पड़ती हैं ।