
रति-जल-रममाणो, मृत्यु-कैवर्त-हस्त;
प्रसृत-घन-जरोरु-प्रोल्लसज्जाल-मध्ये ।
निकटमपि न पश्यत्याऽऽपदां चक्रमुग्रं;
भव-सरसि वराको लोक-मीनौघ एष: ॥176॥
यम-धीवर ने भव-सरवर में, जरा-जाल हैं फैलाये ।
मूढ़-मीन रति-जल में रमती, निकट आपदा नहिं देखे ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार मल्लाह द्वारा बिछाये हुए जाल में रह कर भी मछलियों का समूह जल में क्रीड़ा करता रहता है और मृत्युरूपी आई हुई आपत्ति पर कुछ भी ध्यान नहीं देता; उसी प्रकार यह लोकरूपी मीनों का समूह यमराजरूपी मल्लाह द्वारा बिछाये हुए प्रबल जरारूपी जाल में रह कर, इन्द्रियों के विषयों में प्रीतिरूपी जल में ही निरन्तर क्रीड़ा करता रहता है और आने वाली नरकादि आपत्तियों पर कुछ भी विचार नहीं करता ।