+ उत्तम धर्म से ही मृत्यु पर विजय -
(शार्दूलविक्रीडित)
क्षुद्भुक्तेस्तृडपीह शीतलजलाद्, भूतादिका मन्त्रतः;
सामादेरहितो गदाद्गदगण:, शान्तिं नृभिर्नीयते ।
नो मृत्युस्तु सुरैरपीति हि मृते, मित्रेऽपि पुत्रेऽपि वा;
शोको न क्रियते बुधैः परमहो, धर्मस्ततस्तज्जयः ॥177॥
क्षुधा भुक्ति से, तृष्णा जल से, भूतादिक को मन्त्रों से ।
रोगों को औषधि से शान्त, करें शत्रु सामादिक से ॥
सुर भी जीत सकें नहिं यम को, अत: पुत्र-मित्रादि-वियोग ।
हो तो मृत्यु धर्म से जीतें, किन्तु न करते बुधजन शोक ॥
अन्वयार्थ : मनुष्य, क्षुधा को भोजन से, प्यास को शीतल जल से, भूतादिकों को मन्त्र से, वैरी को साम-दाम-दण्डादिक से और रोग को औषध आदि से शान्त कर लेते हैं, परन्तु मृत्यु को देवादिक भी शान्त नहीं कर सकते; इसलिए विद्वान पुरुष, मित्र या पुत्र के मर जाने पर भी शोक नहीं करते, अपितु वे उत्तम धर्म का ही आराधन करते हैं क्योंकि वे समझते हैं कि उत्तम धर्म से ही मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है ।