
त्यक्त्वा दूरं, विधुरपयसो, दुर्गतिक्लिष्टकृच्छ्रान्;
लब्ध्वाऽनन्दं, सुचिरममर,-श्रीसरस्यां रमन्ते ।
एत्यैतस्या, नृप-पद-सरस्यक्षयं धर्म-पक्षा;
यान्त्येतस्मादपि शिवपदं, मानसं भव्यहंसाः ॥178॥
दुर्गति-क्लेश-नीरयुत सर को, अहो दूर से हंस तजे ।
स्वर्गश्री-जल भरे सरोवर, में आनन्द चिरकाल करें ॥
धर्म-पंख से वह सर तज कर, अन्य सरोवर में रमता ।
उसे छोड़ फिर भव्य-हंस, शिव-मान-सरोवर में जाता ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार हंस नामक पक्षी, खराब जल से भरे हुए तालाब को छोड़ कर, निर्मल जल से भरे हुए सरोवर में अपने पंखों के बल से चला जाता है और वहाँ पर चिरकाल तक आनन्द से क्रीड़ा करता है । पश्चात् अपने पंखों के बल से ही उस सरोवर को छोड़ कर, दूसरे सरोवर में चला जाता है । इसी प्रकार क्रमशः नाना उत्तम सरोवरों के आनन्द को भोगता हुआ वह हंस, मान-सरोवर को प्राप्त हो जाता है और वहाँ वह चिरकाल तक नाना प्रकार के आनन्द का भोग करता है ।
उसी प्रकार भव्यरूपी हंस भी धर्मरूपी पंख के बल से दुःखरूपी जल से भरे हुए दुर्गतिरूपी तालाब को छोड़ कर, देवलोक सम्बन्धी लक्ष्मीरूपी सरोवर में आनन्द के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करते हैं, फिर उसको भी छोड़ कर, धर्म के ही बल से वे नाना प्रकार के चक्रवर्ती आदि राजाओं के पदरूपी सरोवर में क्रीड़ा करते हैं अर्थात् चक्रवर्ती आदि पद का भोग करते हैं । पश्चात् उससे भी विमुख होकर, धर्म के बल से ही वे भव्यरूपी हंस मोक्षपदरूपी मान-सरोवर को प्राप्त हो जाते हैं । इसलिए भव्यों को चाहिए कि वे ऐसे माहात्म्यसहित धर्म का सदा आराधन करें ।