+ धर्म के प्रभाव से तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि पदों की प्राप्ति -
(शार्दूलविक्रीडित)
जायन्ते जिन-चक्रवर्ति-बलभृत्, भोगीन्द्र-कृष्णादयो;
धर्मादेव दिगङ्गनाङ्ग-विलसत्, शश्वद्यशश्चन्दनाः ।
तद्धीना नरकादि-योनिषु नरा, दुःखं सहन्ते ध्रुवं;
पापेनेति विजानता किमिति नो, धर्मः सता सेव्यते ॥179॥
दश-दिश-रमणी-अंग-सुगन्धित हों, जिनके यश-चिन्तन से ।
चक्री-नारायण-बलभद्र, - जिनेश्वर होते हैं वृष से ॥
धर्म बिना, पापों से नरकों, में नर दु:ख सहते चिर काल ।
जानें फिर भी क्यों न करें बुध, अरे! धर्म का आराधन ॥
अन्वयार्थ : धर्मात्मा मनुष्य, धर्म के बल से ही तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र, धरणेन्द्र, नारायण, प्रतिनारायण आदि पद के धारी हो जाते हैं । उनकी कीर्ति, समस्त दिशाओं में एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक फैल जाती है अथवा 'दिगङ्गनाङ्गविलसच्छश्वद्यशश्चन्दना:' अर्थात् उनके यशरूपी चन्दन से दिशारूपी स्त्री के अंगरूपी दशों दिशाएँ सुगन्धित और मनोज्ञ हो जाती हैं तथा जो धर्म से रहित हैं, वे तो निश्चय से नरकादि योनियों में नाना प्रकार के दुःखों को ही सहते हैं । आचार्य कहते हैं कि ऐसा जानते हुए भी विद्वान् मनुष्य, धर्म-आराधना क्यों नहीं करते हैं?