+ धर्म ही समस्त प्राणियों का सहायक -
धर्मो रक्षति रक्षतो ननु हतो, हन्ति ध्रुवं देहिनां;
हन्तव्यो न ततः स एव शरणं, संसारिणां सर्वथा ।
धर्मः प्रापयतीह तत्पदमपि, ध्यायन्ति यद्योगिनो;
नो धर्मात्सुहृदस्ति नैव च सुखी, नो पण्डितो धार्मिकात् ॥182॥
धर्म सुरक्षित हो तो रक्षा करे, अन्यथा होय विनाश ।
संसारी को शरण धर्म की, अत: न उसका करो विनाश ॥
शिवपद भी हो प्राप्त धर्म से, योगी करते जिसका ध्यान ।
इससे बढ़ कर मित्र न कोई, सुखी न पण्डित धर्म बिना ॥
अन्वयार्थ : धर्म की रक्षा होने पर धर्म प्राणियों की रक्षा करता है, परन्तु उसका नाश होने पर वह प्राणियों का नाश भी कर देता है; इसलिए भव्य जीवों को कदापि धर्म का नाश नहीं करना चाहिए क्योंकि समस्त प्राणियों का सहायक धर्म ही है तथा जिस मोक्षपद का योगीश्वर सदा ध्यान करते रहते हैं, उस पद को भी देने वाला है; इसलिए धर्म से बढ़ कर कोई भी सच्चा मित्र नहीं है और धर्मात्मा पुरुष से अधिक कोई सुखी नहीं है और न कोई पण्डित ही है ।