+ धर्म ही संसाररूपी समुद्र को पार करने में समर्थ -
नाना-योनि-जलौघ-लङ्घित-दिशि, क्लेशोर्मि-जालाऽकुले;
प्रोद्भूताऽद्भुत-भूरि-कर्म-मकर,-ग्रासी-कृत-प्राणिनि ।
दुःपर्यन्त-गभीर-भीषण-तरे, जन्माऽम्बुधौ मज्जतां;
नो धर्मादपरोऽस्ति तारक इहा,ऽश्रान्तं यतध्वं बुधाः ॥183॥
नाना योनि-जलोदधि जग में, जहाँ उछलती दु:ख-तरंग ।
कर्म शुभाशुभ मगरमच्छ, करते हैं जीवों का भक्षण ॥
जो गम्भीर भयंकर जिसका, अन्त कठिन भव-सागर में ।
डूब रहे जीवों को पार, करे यह धर्म, सुधी धारें ॥
अन्वयार्थ : अनेक प्रकार की नरकादि योनियोंरूपी समुद्र ने समस्त दिशाओं को व्याप्त कर लिया है, जिसमें नाना प्रकार की दुःखरूपी तरंगें मौजूद हैं, जिसमें उत्पन्न हुए नाना प्रकार के शुभाशुभ कर्मरूपी मगरों के द्वारा जीव खाये जा रहे हैं और जिसका अन्त नहीं है तथा जो गम्भीर और भयंकर है - ऐसे संसाररूपी समुद्र में डूबते हुए जीवों को पार लगाने वाला एक धर्म ही है; इसलिए विद्वानों को चाहिए कि वे सदा धर्म करने में ही प्रयत्न करें ।