+ धर्म से ही समस्त वस्तुओं की सहज प्राप्ति -
भृङ्गा: पुष्पितकेतकीमिव मृगा, वन्यामिव स्वस्थलीं;
नद्यः सिन्धुमिवाऽम्बुजाऽकरमिव, श्वेतच्छदाः पक्षिणः ।
शौर्य-त्याग-विवेक-विक्रम-यशः, सम्पत्सहायाऽऽदयः;
सर्वे धार्मिकमाश्रयन्ति न हितं, धर्मं विना किञ्चन ॥185॥
भ्रमर पुष्प का आश्रय लेते, वन में मृग खोजें विश्राम ।
नदी स्वयं मिलती सागर से, हंस लहें सर में आनन्द ॥
शौर्य विवेक त्याग विक्रम यश, सम्पति इत्यादिक गुणखान ॥
धर्मात्मा के आश्रित हैं सब, धर्म बिना कुछ मिलें न आन ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार भौंरा, स्वयमेव आकर फूली हुई केतकी का आश्रय कर लेता है; जिस प्रकार मृग, वन में स्वयमेव जाकर अपने रहने के स्थान का आश्रय कर लेते हैं; जिस प्रकार नदी, स्वयमेव समुद्र को प्राप्त हो जाती है; जिस प्रकार हंस नामक पक्षी, मानस-सरोवर को स्वयमेव प्राप्त कर लेते हैं । उसी प्रकार वीरत्व, दान, विवेक, विक्रम, कीर्ति, सम्पत्ति, सहायक आदि वस्तुएँ स्वयमेव आकर धर्मात्मा का आश्रय कर लेती हैं, किन्तु धर्म के बिना कोई भी वस्तु नहीं मिलती; इसलिए जो मनुष्य, वीरत्वादि वस्तुओं को चाहते हैं, उनको चाहिए कि वे निरन्तर धर्म करें, जिससे उनको बिना परिश्रम के वे समस्त वस्तुएँ मिल जाएँ ।