
सौभागीयसि कामिनीयसि सुत-श्रेणीयसि श्रीयसि;
प्रासादीयसि चेत्सुखीयसि सदा, रूपीयसि प्रीयसि ।
यद्वाऽनन्तसुखाऽमृताऽम्बुधिपर,-स्थानीयसीह ध्रुवं;
निर्धूताऽखिलदुःखदापदि सुहृत्, धर्मे मतिर्धार्यताम् ॥186॥
यदि चाहो सौभाग्य-कामिनी, लक्ष्मी-पुत्रादिक चाहो ।
भवनरूप सुख चाहो अथवा, जग के प्रिय होना चाहो ॥
अथवा अविनाशी अनन्त सुख, अमृतमय शिवपद चाहो ।
तो हे मित्र! सकल दु:खनाशक, धर्मामृत में मति धारो ॥
अन्वयार्थ : यदि तुम सौभाग्य की इच्छा करते हो, कामिनी की अभिलाषा करते हो, बहुत से पुत्रों को प्राप्त करने की इच्छा करते हो, यदि तुम्हें उत्तम लक्ष्मी प्राप्त करने की इच्छा है, उत्तम मकान पाने की इच्छा है, यदि तुम सुख चाहते हो, उत्तम रूप के मिलने की इच्छा करते हो, समस्त जगत् के प्रिय बनना चाहते हो अथवा जहाँ पर सदा अविनाशी सुख की राशि मौजूद है - ऐसे उत्तम मोक्षरूपी स्थान को पाना चाहते हो तो तुम नाना प्रकार के दुःखों को देने वाली आपत्तियों को दूर करने वाले जिन भगवान द्वारा बताये हुए धर्म में ही अपनी बुद्धि को स्थिर करो ।