
सञ्छन्नं कमलै र्रावति सरः, सौधं वनेऽप्युन्नतं;
कामिन्यो गिरिमस्तकेऽपि सरसाः,साराणि रत्नानि च ।
जायन्तेऽपि च लेपकाष्ठघटिता:, सिद्धिप्रदा देवताः;
धर्मश्चेदिह वाञ्छितं तनुभृतां, किं किं न सम्पद्यते ॥187॥
कमलयुक्त सर हो मरुथल में, वन में बनें विशाल भवन ।
गिरि-शिखरों पर रमणी एवं, मिल जाते बहुमूल्य रतन ॥
चित्रित अथवा काष्ठ सुनिर्मित, देव मनोवाञ्छित देते ।
मात्र धर्म से इस प्राणी को, वाञ्छित फल क्या नहीं मिलें ?
अन्वयार्थ : जिस प्रकार मरुदेश को निर्जल कहा जाता है तो भी धर्म के प्रभाव से ऐसे मरुस्थल में भी मनोहर कमलों से सहित तालाब बन जाते हैं । यद्यपि वन में मकान आदि कुछ भी नहीं होते, परन्तु धर्म के प्रताप से वहाँ पर भी विशाल घर बन जाते हैं । उसी प्रकार निर्जन पहाड़ में किसी भी मनोज्ञ वस्तु की प्राप्ति नहीं होती तो भी धर्मात्मा पुरुषों को धर्म की कृपा से वहाँ भी मन को हरण करने वाली स्त्रियों तथा उत्तमोत्तम रत्नों की प्राप्ति हो जाती है । यद्यपि चित्राम तथा काठ के बनाए हुए देवता कुछ भी नहीं दे सकते तो भी धर्म के माहात्म्य से वे भी वांछित पदार्थों को देने वाले हो जाते हैं । विशेष कहाँ तक कहा जाए? यदि संसार में धर्म है तो जीवों को कठिन से कठिन वस्तु की प्राप्ति भी तत्काल हो जाती है ।