
कोप्यन्धोऽपि सुलोचनोऽपि जरसा, ग्रस्तोऽपि लावण्यवान्;
निःप्राणोऽपि हरिर्विरूपतनुरप्याऽऽघुष्यते मन्मथः ।
उद्योगोज्झितचेष्टितोऽपि नितरा,-मालिंग्यते च श्रिया;
पुण्यादन्यमपि प्रशस्तमखिलं, जायेत यद्दुर्घटम् ॥189॥
अन्धे को भी कहें सुलोचन, बूढ़ा भी कहलाए जवान ।
निर्बल को भी शेर कहे जग, कामदेव कहें रूप बिना ॥
पुण्योदय से महा आलसी, को भी लक्ष्मी वरण करे ।
उत्तम से उत्तम वस्तु भी, मिलती जग में दुर्लभ जो ॥
अन्वयार्थ : पुण्य के उदय से अन्धा होने पर भी सुलोचन, रोगी भी रूपवान, निर्बल भी सिंह के समान पराक्रमी तथा बदसूरत भी कामदेव के समान सुन्दर कहलाता है; इसी प्रकार आलसी को भी लक्ष्मी अपने आप आकर वर लेती है । विशेष कहाँ तक कहा जाए? जो उत्तम से उत्तम वस्तुएँ संसार में दुर्लभ कही जाती हैं, वे सभी पुण्य के ही उदय से सुलभ हो जाती हैं अर्थात् वे बिना परिश्रम के ही प्राप्त हो जाती हैं ।