
सर्पो हारलता भवत्यसिलता, सत्पुष्पदामायते;
सम्पद्येत रसायनं विषमपि, प्रीतिं विधत्ते रिपुः ।
देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनसः, किं वा बहु ब्रुमहे;
धर्मो यस्य नभोऽपि तस्य सततं, रत्नैः परैर्वर्षति ॥191॥
सर्प मनोहर हार बने फूलों की माला तलवार ।
घातक विष भी बने रसायन अरि, भी करे प्रेम व्यवहार ॥
सुर भी दास बनें खुश होकर और अधिक क्या कहें विशेष ।
जहाँ धर्म है वहाँ गगन से, उत्तम रत्न नित्य बरसें ॥
अन्वयार्थ : जो मनुष्य धर्मात्मा हैं; उनके प्रभाव से भयंकर सर्प भी मनोहर हार बन जाते हैं, पैनी तलवार भी उत्तम फूलों की माला बन जाती है, प्राणघातक विष भी उत्तम रसायन बन जाता है, वैरी भी प्रीति करने लग जाता है और प्रसन्नचित्त होकर देव भी धर्मात्मा पुरुष के आधीन हो जाते हैं । विशेष कहाँ तक कहा जाए? जिस मनुष्य के हृदय में धर्म है, उसके धर्म के प्रभाव से आकाश से भी उत्तम रत्नों की वर्षा होती है; इसलिए भव्य जीवों को धर्म से कदापि विमुख नहीं होना चाहिए ।