
उग्र-ग्रीष्म-रवि-प्रताप-दहन,-ज्वालाऽभितप्तश्चलन्;
यः पित्त-प्रकृतिर्मरौ मृदुतरः, पान्थो यथा पीडितः ।
तद् द्राग्लब्धहिमाद्रिकुञ्जरचित,-प्रोद्दामयन्त्रोल्लसद्;
धारावेश्मसमो हि संसृति-पथे, धर्मो भवेद्देहिनाम् ॥192॥
भीषण गर्मी में सूरज की, ज्वाला में ज्यों गमन करे ।
पित्त प्रकृतिवाला कोमल तन-धारी मनुज मरुस्थल में ॥
हिमवत् शीतल फव्वारों से, युक्त मनोहर सदन मिले ।
दैवयोग से त्यों भव-वन में, प्राणी को सत्धर्म मिले ॥
अन्वयार्थ : ग्रीष्मकाल में जो बटोही भयंकर सूर्य की सन्तापरूपी अग्नि की ज्वालाओं से अत्यन्त तप्तायमान है, पित्त प्रकृतिवाला है, कोमल शरीर का धारी है और मारवाड़ की भूमि में गमन करने वाला है; इस प्रकार जो अत्यन्त दुःखित है, यदि वह दैवयोग से हिमालय पर्वत की गुफा में बने हुए फव्वारों सहित मनोहर धारागृह को पा लेवे तो वह परम सुखी होता है । उसी प्रकार जो जीव, अनादिकाल से इस संसार में जन्मह्नमरण आदि दुःखों को सह रहा है तथा निरन्तर नरकादि योनियों में भ्रमण कर रहा है; यदि वह भी धारागृह के समान इस धर्म को संसार में पा लेवे तो सुखी हो जाता है; इसलिए जो मनुष्य शान्ति को चाहते हैं, उनको धर्म का आराधन अवश्य ही करना चाहिए ।