
संहारोग्र-समीर-संहतिहत,-प्रोद्भूत-नीरोल्लसत्;
तुङ्गोर्मि - भ्रमितोरु-नक्र -मकर -ग्राहादिभिर्भीषणे ।
आम्भोधौ विधुतोग्रवाडवशिखि,-ज्वालाकराले पतत्;
जन्तोः खेऽपि विमानमाशु कुरुते, धर्मः समालम्बनम्॥193॥
प्रलयकाल की तीव्र पवन से, जिसमें ऊँची लहर उठें ।
मगरमच्छ घड़ियाल आदि से, सागर हुआ भयंकर है ॥
बड़वानल से उग्र उदधि में, गिरते हुए जगत्जन को ।
नभ में रचे विमान धर्म, देता आलम्बन जीवों को ॥
अन्वयार्थ : प्रलयकाल में समुद्र में उठा हुआ जो भयंकर पवन समूह, उससे उछलता हुआ जो जल, उसकी जो ऊँची-ऊँची तरंगें, उनमें भ्रमण करते हुए जो मगरमच्छ आदि जल-जीव, उनसे जो भयंकर हो रहा है तथा जो तीक्ष्ण बड़वानल की ज्वाला से भी भयंकर है - ऐसे समुद्र में गिरते हुए प्राणियों को भी धर्म नहीं गिरने देता है तथा आकाश में भी विमान रच कर, शीघ्र ही अवलम्बन देता है ।