+ धर्मात्मा पुरुषों की कीर्ति का समस्त दिशाओं में विस्तार -
(स्रग्धरा)
उह्यन्ते ते शिरोभिः, सुरपतिभिरपि, स्तूयमानाः सुरौघै;
गीयन्ते किन्नरीभि:, ललितपदलसद्, गीतिभिर्भक्तिरागात् ।
बंभ्रम्यंते च तेषां, दिशि दिशि विशदाः, कीर्तयः का न वा स्यात्;
लक्ष्मीस्तेषु प्रशस्ता, विदधति मनुजा, ये सदा धर्मेकम् ॥194॥
सुरपति मस्तक पर धारें अरु, सुरगण करें मधुर गुणगान ।
ललित पदावलि से किन्नरियाँ, भक्तिराग से स्तुति-गान ॥
दिग्दिगन्त में कीर्ति व्याप्त हो, लक्ष्मी आकर वरण करे ।
अत: भव्यजन महामहिम यह, धर्म सदा उर में धारें ॥
अन्वयार्थ : जो मनुष्य, सदा धर्म को धारण करते हैं, उनको इन्द्र भी मस्तक पर धारण करते हैं, उनकी बड़े-बड़े देव स्तुति करते हैं और उन धर्मात्मा पुरुषों के गुण, बड़ी शान्ति से किन्नरी जाति की देवियाँ गाती हैं, उन धर्मात्मा पुरुषों की कीर्ति समस्त दिशाओं में फैल जाती है, उन धर्मात्मा पुरुषों को उत्तम से उत्तम लक्ष्मी की भी प्राप्ति होती है; इसलिए भव्य जीवों को ऐसा महिमायुक्त धर्म अवश्य धारण करने योग्य है ।