
आस्तामस्य विधानतः पथि गति,-र्धर्स्य वार्ताऽपि यैः;
श्रुत्वा चेतसि धार्यते त्रिभुवने, तेषां न काः सम्पदः ।
दूरे सज्जल-पान-मज्जन-सुखं, शीतैः सरो-मारुतैः;
प्राप्तं पद्मरजः सुगन्धिभिरपि, श्रान्तं जनं मोदयेत् ॥196॥
धर्म-मार्ग पर चलने की क्या बात? मात्र जो सुन कर ही ।
धारण करते उन्हें न मिलती, कौन सम्पदा त्रिभुवन की ?
दूर रहो शीतल जल पीने और नहाने को सुख-भोग ।
कमल-रजों से सुरभित शीतल, वायु मात्र करती मदहोश ॥
अन्वयार्थ : धर्म के मार्ग में विधिपूर्वक गमन करना तो दूर रहो, किन्तु जो धर्म की बातों के प्रेमी मनुष्य, केवल उसको सुन कर धारण करते हैं, उनको भी तीन लोक में समस्त सम्पदाओं की प्राप्ति होती है । जिस प्रकार शीतल जल के पीने तथा स्नान करने का सुख तो दूर ही रहो , किन्तु जो तालाब की वायु, कमलों की रज से सुगन्धित है, शीतल है, उससे उत्पन्न हुआ सुख भी थके हुए मनुष्य को शान्त कर देता है; इसलिए भव्य जीवों को सदा धर्म का ही आश्रय लेना चाहिए ।