
नानाजनाश्रितपरिग्रहसम्भृतायाः,
सत्पात्रदानविधिरेव गृहस्थतायाः ।
हेतुः परः शुभगतेर्विषमे भवेऽस्मिन्,
नावः समुद्र इव कर्मठकर्णधारः॥6॥
विविध परिग्रह युक्त गृहस्थों को सत्पात्र-दान-विधि मात्र ।
शुभगति दाता, यथा सिन्धु में नौका तारे खेवनहार॥
अन्वयार्थ : जिसका खेवटिया चतुर है - ऐसे अथाह समुद्र में पड़ी हुई नाव भी जिस प्रकार मनुष्य को तत्काल पार कर देती है; उसी प्रकार इस भयंकर संसार में स्त्री-पुत्र आदि नाना जनों के आधीन जो परिग्रह, उससे सहित इस गृहस्थपने में रहे हुए मनुष्य के लिए श्रेष्ठ पात्र के लक्ष्य से हुई दान-विधि ही शुभ गति को देने वाली होती है । इसलिए भव्य जीवों को गृहस्थाश्रम में रह कर अवश्य दान देना चाहिए ।