+ दान में ही धन की सफलता -
आयासकोटिभिरुपार्जितमङ्गजेभ्यो,
यज्जीवितादपि निजाद्दयितं जनानाम् ।
वित्तस्य तस्य सुगतिः खलु दानमेकं,
अन्या विपत्तय इति प्रवदन्ति सन्तः॥7॥
किया उपार्जित विविध दु:खों से, अधिक इष्ट सुत, प्राणों से ।
दान-मात्र है सुगति वित्त की, अन्य विपत्ति सन्त कहें॥
अन्वयार्थ : जो धन, नाना प्रकार के दुःखों से पैदा किया गया है, जो मनुष्यों को अपने पुत्रों से तथा जीवन से भी अधिक प्यारा है, उस धन की यदि अच्छी गति है तो केवल दान ही है अर्थात् वह धन, दान से सफल होता है, किन्तु दान के अतिरिक्त दिया हुआ वह धन, विपत्ति का ही कारण है - ऐसा सज्जन पुरुष कहते हैं । इसलिए भव्य जीवों को अपना कमाया हुआ धन, दान में ही खर्च करना चाहिए ।