+ पात्रदान ही वटवृक्ष के बीज समान -
भुक्त्यादिभिःप्रतिदिनं गृहिणो न सम्यक्-,
नष्टा रमापि पुनरेति कदाचिदत्र ।
सत्पात्रदानविधिना तु गताप्युदेति,
क्षेत्रस्थ बीजमिव कोटिगुणं वटस्य॥8॥
भोगादिक में नष्ट लक्ष्मी, कभी लौट कर नहिं आती ।
पात्रदान में खर्च हुई जो, वृक्ष् बीजवत् कोटि गुणी॥
अन्वयार्थ : गृहस्थ के द्वारा जिस लक्ष्मी का भोगादि से नाश होता है, वह लक्ष्मी कदापि लौट कर नहीं आती; परन्तु जो लक्ष्मी, मुनि आदि उत्तम पात्रों के दान देने में खर्च होती है, वह लक्ष्मी, भूमि में स्थित वटवृक्ष के बीज के समान कोटि गुनी होती है अर्थात् जो मनुष्य, लक्ष्मी पाकर निरभिमान होकर दान देते हैं, वे इन्द्रादि सम्पदाओं का भोग करते हैं । इसलिए यदि मनुष्य को लक्ष्मी की वृद्धि की भी आकांक्षा है तो उसको अवश्य मुनि आदि पात्रों को दान देना चाहिए ।