
यो दत्तवानिह मुमुक्षुजनाय भुक्तिं,
भक्त्याश्रितः शिवपथे न धृतः स एव ।
आत्माऽपि तेन विदधत्सुरसद्म नूनं,
उच्चैः पदं व्रजति तत्सहितोऽपि शिल्पी॥9॥
जैसे भवन बनाता शिल्पी, खुद ऊँचा चढ़ता जाता ।
करे दान-आहार मुमुक्षु, को वह खुद मुक्ति जाता॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार कारीगर जैसे-जैसे ऊँचा मकान बनाता जाता है, वैसे-वैसे आप भी ऊँचा होता चला जाता है; उसी प्रकार जो मनुष्य, मोक्ष की इच्छा करने वाले मनुष्य को भक्तिपूर्वक आहारदान देता है, वह उस मुनि को ही मुक्ति में नहीं पहुँचाता, किन्तु स्वयं भी जाता है । इसलिए ऐसा स्व-पर हितकारी दान मनुष्यों को अवश्य देना चाहिए ।