
यः शाकपिण्डमपि भक्तिरसानुविद्ध-,
बुद्धिः प्रयच्छति जनो मुनिपुङ्गवाय ।
सः स्यादनन्तफलभागथ बीजमुप्तं,
क्षेत्रे न किं भवति भूरि कृषीवलस्य॥10॥
भक्तिपूर्वक मुनिपुङ्गव को, शाकमात्र का दे आहार ।
वह अनन्त सुख पाता है ज्यों, कृषक बीज से पाता धान्य॥
अन्वयार्थ : जो श्रावक, भक्तिपूर्वक मुनि को शाक-पिण्ड का भी आहार देता है, वह अनन्त सुखों का भोक्ता होता है । जिस प्रकार लोक में किसान थोड़ा बीज बोता है तो उसके बीज की अपेक्षा अधिक धान्य पैदा होता है; उसी प्रकार धर्मक्षेत्र में थोड़े-से बहुत की इच्छा करने वाले श्रावकों को खूब दान देना चाहिए ।