+ पात्रदान करनेवाले मनुष्य की इन्द्र से भी अधिक महानता -
साक्षान्मनोवचन-काय-विशुद्धि-शुद्धः,
पात्राय यच्छति जनो ननु भुक्तिमात्रम् ।
यस्तस्य संसृति-समुत्तरणैक-बीजे,
पुण्ये हरिर्भवति सोऽपि कृताऽभिलाष:॥11॥
मन-वच-तन की शुद्धिपूर्वक, जो मुनिवर को दें आहार ।
ऐसे भवदधि-तारक शुभ में, सुरपति भी करते अभिलाष॥
अन्वयार्थ : जो मनुष्य, भलीभाँति मन-वचन-काय को शुद्ध कर, उत्तम पात्र के लिए आहारदान देता है - ऐसे मनुष्य के, संसार से पार करने में कारणभूत पुण्य की अभिलाषा, नाना प्रकार की संपत्ति का भोग करने वाला इन्द्र भी करता है । इसलिए गृहस्थाश्रम में सिवाय दान के दूसरा कोई कल्याण करने वाला नहीं, अतः श्रावकों को दान अवश्य चाहिए ।