+ गृहस्थाश्रम में व्रत की अपेक्षा दान की महत्ता -
नानागृहव्यतिकरार्जितपापपुञ्जै:,
खञ्जीकृतानि गृहिणो न तथा व्रतानि ।
उच्चैः फलं विदधतीह यथैकदाऽपि,
प्रीत्यातिशुद्धमनसा कृतपात्रदानम्॥13॥
पापों से असमर्थ व्रतादिक, नहिं दे सकते हैं वह फल ।
निर्मल मन से एक बार, सत्पात्रदान से हो जो फल॥
अन्वयार्थ : गृह-सम्बन्धी नाना प्रकार के आरम्भों से उपार्जन किए हुए पाप के कारण असमर्थ हुए व्रत, गृहस्थों को कुछ भी ऊँचे फल को नहीं दे सकते; जैसा कि प्रीतिपूर्वक तथा शुद्ध मन से उत्तमादि पात्रों को एक समय भी दिया हुआ दान, उत्तम फल को देता है । इसलिए ऊँचे फल के अभिलाषियों को सदा उत्तमादि पात्रों का दान देना चाहिए ।