प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः
प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः।
प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया
ब्रू याद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः॥५॥
अन्वयार्थ : जो त्रिकालवर्ती पदार्थों को विषय करनेवाली प्रज्ञा से सहित है, समस्त शास्त्रों के रहस्य को जान चुका है, लोकव्यवहार से परिचित है, अर्थलाभ और पूजा-प्रतिष्ठा आदि की इच्छा से रहित है, नवीन नवीन कल्पना की शक्तिरूप अथवा शीघ्र उत्तर देने की योग्यतारूप उत्कृष्ट प्रतिभा से सम्पन्न है, शान्त है, प्रश्न करने के पूर्व में ही वैसे प्रश्न के उपस्थित होने की सम्भावना से उसके उत्तर को देख चुका है, प्रायः अनेक प्रकार के प्रश्नों के उपस्थित होने पर उनको सहन करनेवाला है अर्थात् न तो उनसे घबडाता है और न उतेजित ही होता है, श्रोताओं के ऊपर प्रभाव डालने वाला है, उनके मन को आकर्षित करनेवाला अथवा उनके मनोगत भाव को जाननेवाला है, तथा उत्तमोत्तम अनेक गुणों का स्थानभूत है; ऐसा संघ का स्वामी आचार्य दूसरों को निन्दा न करके स्पष्ट एवं मधुर शब्दों में धर्मोपदेश देने का अधिकारी होता है॥५॥
Meaning : The one who has the wisdom about the reality of substances, has assimilated the core of the Scripture, knows the ways of the world, has no desire for worldly riches and honour, has sharp intellect, is serene, has sharp wit to know beforehand the answers to all future questions, has the ability to face with calmness almost all kinds of questions, enjoys lordship over the audience, is attractive, and is a repository of good qualities; such leader of the congregation should deliver his discourse in clear and sweet words, without speaking ill of others.
भावार्थ