श्रुतमविकलं शुद्धा वृत्तिः परप्रतिबोध ने
परिणतिरुरूद्योगो मार्गप्रवर्तन सद्विधौ ।
बुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञता मृदुताऽस्पृहा
यतिपति गुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरुः सताम् ॥६॥
अन्वयार्थ : जिसके परिपूर्ण श्रुत है अर्थात् जो समस्त सिद्धान्त का जानकार है; जिसका चारित्र अथवा मन, वचन व काय की प्रवृत्ति पवित्र है; जो दूसरों को प्रतिबोधित करने में प्रवीण है, मोक्षमार्ग के प्रचाररूप समीचीन कार्य में अतिशय प्रयत्नशील है, जिसकी अन्य विद्वान् स्तुति करते हैं तथा जो स्वयं भी विशिष्ट विद्वानों की प्रशंसा एवं उन्हें नमस्कार आदि करता है, जो अभिमान से रहित है, लोक और लोकमर्यादा का जानकार है, सरल परिणामी है, इस लोकसम्बन्धी इच्छाओं से रहित है, तथा जिसमें और भी आचार्य पद के योग्य गुण विद्यमान हैं; वही हेयोपादेय-विवेकज्ञान के अभिलाषी शिष्यों का गुरु हो सकता है ॥६॥
Meaning : The ‘guru’ or the ‘spiritual teacher’ of the discerning disciple is the one who possesses the following and other qualities of the chief preceptor : complete knowledge of the Scripture; pure conduct or purity in the activities of the mind, the speech and the body; expertise in preaching others; keen interest in promulgation of the lofty path ; reverenced by the learned and with reverence for the unusually learned; modesty; knowledge of the worldly ways; tenderness; and free from worldly desires.
भावार्थ