भावार्थ :
विशेषार्थ- यहां धर्मोपदेश के सुनने का अधिकारी कौन है, इस प्रकार श्रोता के गुणों का विचार करते हुए सबसे पहिले यह बतलाया है कि भव्य होना चाहिये। जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को प्राप्त करके भविष्य में अनन्तचतुष्टयस्वरूप से परिणत होनेवाला है वह भव्य कहलाता है। यदि श्रोता इस प्रकारका भव्य नहीं है तो उसे उपदेश देना व्यर्थ ही होगा। कारण कि जिस प्रकार पानी के सींचनेसे मिट्टी गीलेपन को प्राप्त हो सकती है उस प्रकार पत्थर नहीं हो सकता, अथवा जिस प्रकार नवीन घट के ऊपर जलबिन्दुओं के डालने पर वह उन्हें आत्मसात् कर लेता है उस प्रकार घी आदि से चिक्कणताको प्राप्त हुआ घट उन्हें आत्मसात् नहीं कर सकता है-वे इधर उधर बिखर कर नीचे गिर जाती हैं। ठीक यही स्थिति उस श्रोता की भी है-जिस श्रोता का हृदय सरल है वह सदुपदेश को ग्रहण करके तदनुसार प्रवृत्ति करने में प्रयत्नशील होता है, किन्तु जिसका हृदय कठोर है उसके ऊपर सदुपदेश का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। अतएव सबसे पहिले उसका भव्य होना आवश्यक है । दूसरी विशेषता उसकी यह निर्दिष्ट की गई है कि उसे हिताहितका विवेक होना चाहिये। कारण कि मेरा आत्मकल्याण किस प्रकार से हो सकता है, यह विचार यदि श्रोता के रहता है तब तो वह सदुपदेश को सुनकर तदनुसार कल्याणमार्ग में चलनेके लिये उद्यत हो सकता है । परन्तु यदि उसे आत्महित की चिन्ता अथवा हित और अहित का विवेक ही नहीं है तो वह मोक्षमार्ग में प्रवृत्त नहीं हो सकेगा। किन्तु जब और जिस प्रकार का अनुकूल या प्रतिकूल उपदेश उसे प्राप्त होगा तदनुसार वह अस्थिरता से आचरण करता रहेगा। इस प्रकार से वह दुखी ही बना रहेगा। इसीलिये उसमें आत्महित का विचार और उसके परीक्षण की योग्यता अवश्य होनी चाहिये। इसी प्रकार उसे दुख का भय और सुख की अभिलाषा भी होनी चाहिये, अन्यथा यदि उसे दुख से किसी प्रकार का भय नहीं है या सुख की अभिलाषा नहीं है तो फिर भला वह दुख को दूर करने वाले सुख के मार्ग में प्रवृत्त ही क्यो होगा? नहीं होगा। अतएव उसे दुख से भयभीत और सुखाभिलाषी भी अवश्य होना चाहिये। इसके अतिरिक्त उसमें निम्न प्रकार बुद्धि का विभव या श्रोता के आठ गुण भी होने चाहिये-- " शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा। स्मृत्यूहापोहनिर्णीतिः श्रोतुरष्टौ गुणान् विदुः॥" सबसे पहिले उसे उपदेश सुनने की उत्कंठा (शुश्रूषा ) होनी चाहिये, अन्यथा तदनुसार आचरण करना तो दूर रहा किन्तु वह उसे रुचिपूर्वक सुनेगा भी नहीं। अथवा शुश्रूषा से अभिप्राय गुरू की सेवा का भी हो सकता है, क्योंकि वह भी ज्ञानप्राप्ति का साधन है। इसके अनन्तर श्रवण (सुनना), सुने हुये अर्थ को ग्रहण करना, ग्रहण किये हुए अर्थ को हृदय में धारण करना, उसका स्मरण रखना, उसके योग्यायोग्य का युक्तिपूर्वक विचार करना, इस विचार से जो योग्य प्रमाणित हो उसे ग्रहण करके अयोग्य अर्थ को छोडना, तथा योग्य तत्त्व के विषय में दृढ रहना; ये श्रोता के आठ गुण हैं जो उसमें होने चाहिये। उपर्युक्त गुणों के अतिरिक्त श्रोता में हठाग्रह का अभाव भी होना चाहिये, क्योंकि यदि वह हठाग्रही है तो वह यथावत् वस्तुस्वरूप का विचार नहीं कर सकेगा। कहा भी है-"आग्रही बत निनीषति युक्ति तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा। पक्षपातरहितस्य तु युक्तियत्र तत्र मतिरेति निवेशम्॥" अर्थात् दुराग्रही मनुष्य ने जो पक्ष निश्चित कर रखा है वह युक्ति को उसी ओर ले जाना चाहता है। किन्तु जो आग्रह से रहित होकर निष्पक्ष दृष्टि से विचार करना चाहता है वह युक्ति का अनुसरण करके उसके ऊपर विचार करता और तदनुसार वस्तुस्वरूप का निश्चय करता है। इस प्रकार जिस श्रोता में ये गुण विद्यमान होंगे वह सुरूचिपूर्वक धर्मोपदेश को सुन करके तदनुसार आत्महित के मार्ग में अवश्य प्रवृत्त होगा॥७॥ |