+ आप्त की उपासना की प्रेरणा -
सर्वः प्रेप्सति सत्सुखाप्तिमचिरात् सा सर्वकर्मक्षयात्
सद्वृतात् स च तच्च बोधनियतं सोऽप्यागमात् स श्रुतेः।
सा चाप्तात् स च सर्वदोषरहितो रागादयस्तेऽप्यतः
तं युक्त्या सुविचार्य सर्वसुखदं सन्तः श्रयन्तु श्रिये ॥९॥
अन्वयार्थ : सब प्राणी शीघ्र ही यथार्थ सुख को प्राप्त करने की इच्छा करते हैं, वह सुख की प्राप्ति समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर होती है, वह कर्मों का क्षय भी सम्यक् चारित्र के निमित्त से होता है, वह सम्यक्चारित्र भी सम्यग्ज्ञान के अधीन है, वह सम्यग्ज्ञान भी आगम से प्राप्त होता है, वह आगम भी द्वादशांगरूप श्रुत के सुनने से होता है, वह द्वादशांग श्रुत भी आप्त से आविर्भूत होता है, आप्त भी वही हो सकता है जो समस्त दोषों से रहित है, तथा वे दोष भी रागादिस्वरूप हैं। इसलिये सुख के मूल कारणभूत आप्त का (देव का) युक्ति (परीक्षा) पूर्वक विचार करके सज्जन मनुष्य बाह्य एवं अभ्यन्तर लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये सम्पूर्ण सुख देनेवाले उसी आप्त का आश्रय करें॥९॥
Meaning : All living beings wish for early attainment of real happiness; real happiness arises on destruction of all karmas; destruction of karmas is caused by observing right conduct; right conduct ensues from right knowledge; right knowledge is obtained from the Scripture (āgama); the Scripture comprises the discourse on the twelve-departments (dvādaśāńga, jinavāõī); the discourse on the twelve-departments emanates from the Omniscient Lord (Āpta); the Omniscient Lord is completely rid of (the eighteen) imperfections (see p. 4, ante); the imperfections are nothing but faults such as attachment (rāga). Therefore, the worthy seeker of real happiness must, after due discernment, take refuge in the Omniscient Lord (Āpta), the source of all that is beneficial.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- यहां यह बतलाया है कि क्षुधा-तृषा आदि अठारह दोषों से रहित आप्त की दिव्यध्वनि को सुनकर गणधरों के द्वारा द्वादशांग श्रुत की रचना की जाती है। उसको सुनकर आरातीय आचार्य आगम का प्रणयन करते हैं जिसके कि अभ्यास से साधारण प्राणियों को हिताहित का बोध प्राप्त होता है। इस प्रकार जब प्राणी को हिताहित विवेक के साथ वस्तुस्थिति का ज्ञान हो जाता है तब उसका सम्यक्चारित्र (तप-संयम आदि) की ओर झुकाव होता है और इससे वह सम्पूर्ण कर्मों को आत्मा से पृथक् करके शीघ्र ही अविनश्वर निराकुल सुख को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार परम्परा से उसके मनोरथ की पूर्ति का मूल कारण रागादि दोषों से रहित सर्वदर्शी आप्त ही ठहरता है। अतएव सुखाभिलाषी प्राणियों को ऐसे ही आप्त का स्मरण, चिन्तन एवं उपासना आदि करनी चाहिये॥९॥