भावार्थ :
विशेषार्थ- यहां सम्यग्दर्शनके जो दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं वे हैं निसर्गज और अधिगमज सम्यग्दर्शन। इनमें जो तत्त्वार्थश्रद्धान साक्षात् बाह्य उपदेश आदि को अपेक्षा न करके स्वभाव से ही उत्पन्न होता है उसे निसर्गज तथा जो बाह्य उपदेश की अपेक्षा से उत्पन्न होता है उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं। प्रत्येक कार्य अन्तरङग और बाह्य इन दो कारणों से उत्पन्न होता है। तदनुसार यहां सम्यग्दर्शन का अन्तरङग कारण जो दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है वह तो इन दोनों ही सम्यग्दर्शनों में समान है। विशेषता उन दोनों में इतनी ही है कि निसर्गज सम्यग्दर्शन साक्षात् बाह्य उपदेश को अपेक्षा न करके जिनमहिमा आदि के देखने से प्रगट हो जाता है, परन्तु अधिगमज सम्यग्दर्शन बाह्य उपदेश के बिना नहीं प्रगट होता है। इसके आगे जो उसके तीन भेद निर्दिष्ट किये हैं वे अन्तरङग कारण की अपेक्षा से हैं। यथा- जो सम्यग्दर्शन अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियों के उपशम से उत्पन्न होता है उसे औपशमिक तथा जो इन्हीं सात प्रकृतियों के क्षय से उत्पन्न होता है उसे क्षायिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इनके उदयाभावी क्षय व सदवस्थारूप उपशमसे तथा देशघाती स्पर्धकस्वरूप सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे क्षायोपशमिक कहा जाता है। आगे जो यहां उस सम्यग्दर्शन के दस भेदों का निर्देश किया है उनका वर्णन ग्रन्थकार स्वयं ही आगे करेंगे, अतएव उनके सम्बन्ध में यहां कुछ नहीं कहा जा रहा है। जिन दोषों के कारण यह सम्यग्दर्शन मलिनता को प्राप्त होता है वे पच्चीस दोष निम्न प्रकार हैं- 3 मूढता, 8 मद, 6 अनायतन और 8 शंका आदि । मूढताका अर्थ अज्ञानता है। वह मूढता तीन प्रकारकी है । (1) लोकमूढता- कल्याणकारी समझकर गंगा आदि नदियों अथवा समुद्र में स्नान करना, बालु या पत्थरों का स्तूप बनाना, पर्वत से गिरना, तथा अग्नि में जलकर सती होना आदि । (2) देवमूढता- अभीष्ट फल प्राप्त करने की इच्छा से इसी भव में आशायुक्त होकर राग-द्वेष से दूषित देवताओं की आराधना करना। (3) गुरुमूढता- जो परिग्रह, आरम्भ एवं हिंसा से सहित तथा संसारपरिभ्रमण के कारणीभूत विवाहादि कार्यों में रत हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि साधुओं की प्रशंसा आदि करना। कहीं कहीं इस गुरुमूढता के स्थान में समयमूढता पायी जाती है जिसका अभिप्राय है समीचीन और मिथ्या शास्त्रों की परीक्षा न कर कुमार्ग में प्रवृत्त करने वाले शास्त्रों का अभ्यास करना। ज्ञान, प्रतिष्ठा, कुल (पितृवंश), जाति (मातृवंश), शारीरिक बल, धन-सम्पत्ति, अनशनादिस्वरूप तप और शरीर सौन्दर्य इन आठ के विषय में अभिमान प्रगट करने से आठ मद होते हैं । अनायतन का अर्थ है धर्म का अस्थान। वे अनायतन छह हैं- कुगुरु, कुदेव, कुधर्म कुगुरुभक्त, कुदेवभक्त और कुधर्मभक्त। निर्मल सम्यग्दृष्टि जीव राजा आदि के भय से, आशा से, स्नेह से तथा लोभ से भी कभी इनकी प्रशंसा आदि नहीं करता है । 8 शंका आदि- (1) शंका- सर्वज्ञ देव के द्वारा उपदिष्ट तत्त्व के विषय में ऐसी आशंका रखना कि जिस प्रकार यहां अमुक तत्त्व का स्वरूप बतलाया गया है क्या वह वास्तव में ऐसा ही है अथवा अन्य प्रकार है। (2) कांक्षा- पाप एवं दुख के कारणीभूत कर्माधीन सांसारिक सुख को स्थिर समझकर उसकी अभिलाषा रखना। (3) विचिकित्सा- मुनि आदि के मलिन शरीर को देखकर उससे घृणा करना । यद्यपि यह मनुष्य शरीर स्वभावतः अपवित्र है, फिर भी चूंकि सम्यग्दर्शन आदिरूप रत्नत्रय का लाभ एक मात्र इसी मनुष्य शरीर से हो सकता है अतएव वह घृणा के योग्य नहीं है। यदि वह घृणा के योग्य है तो केवल विषयभोग को दृष्टि से ही है, न कि आत्मस्वरूपलाभ की दृष्टि से। (4) मूढदृष्टि- कुमार्ग अथवा कुमार्गगामी जीवों की मन, वचन अथवा काय से प्रशंसा करना ! (5) अनुपगूहन-- अज्ञानी अथवा अशक्त (व्रतादि के परिपालन में असमर्थ) जनों के कारण पवित्र मोक्षमार्ग के विषय में यदि किसी प्रकार को निन्दा होती हो तो उसके निराकरण का प्रयत्न न करके उसमें सहायक होना। (6) अस्थितीकरण- मोक्षमार्ग से डिगते हुए भव्य जीवों को देख करके भी उन्हें उसमें दृढ करनेका प्रयत्न न करना। (7) अवात्सल्य-- धर्मात्मा जीवों का अनुरागपूर्वक आदरसत्कार आदि न करना, अथवा उसे कपटभाव से करना। (8) अप्रभावना- जैनधर्म के विषय में यदि किन्हीं को अज्ञान अथवा विपरीत ज्ञान है तो उसे दूर करके उसकी महिमा को प्रकाशित करने का उद्योग न करना । इस प्रकार ये सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष हैं जो उसे मलिन करते हैं। इतना यहां विशेष समझना चाहिये कि इन दोषों की सम्भावना केवल क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन के विषय में ही हो सकती है, कारण कि वहां सम्यक्त्वप्रकृति का उदय रहता है। औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शन के विषय में उक्त दोषों को सम्भावना नहीं है। श्लोक में जिन संवेग अर्थात् संसार के दुःखों से निरंतर भयभीत रहना, अथवा धर्म में अनुराग रखना। (2) निर्वेद-- संसार, शरीर एवं भोगों से विरक्ति। (3) निन्दा-- अपने दोषों के विषय में पश्चाताप करना। (4) गर्हा- किये गये दोषों को गुरु के आगे प्रगट करके निन्दा करना। (5) उपशम-- क्रोधादि विकारों को शान्त करना। (6) भक्ति-- सम्यग्दर्शन आदि के विषय में अनुराग रखना। (7) वात्सल्य-- धर्मात्मा जन से प्रेमपूर्ण व्यवहार करना। (8) अनुकम्पा-- प्राणियों के विषय में दयाभाव रखना। इस प्रकार इन गुणों से सहित और उपर्युक्त पच्चीस दोषों से रहित वह सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी प्रासाद को प्रथम सीढी के समान है। इसीलिये उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप इन चार आराधनाओं में प्रथम स्थान प्राप्त है ॥10॥ |