+ अणुव्रत ग्रहण करने की प्रेरणा -
विषयविषभाशनोत्थितमोहज्वरजनिततीव्रतृष्णस्य।
निःशक्तिकस्य भवतः प्रायः पेयाधुपक्रमः श्रेयान् ॥१७॥
अन्वयार्थ : विषयरूप विषम भोजन से उत्पन्न हुए मोहरूप ज्वर के निमित्त से जो तीव्र तृष्णा (विषयाकांक्षा और प्यास) से सहित है तथा जिसकी शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण हो रही है ऐसे तेरे लिये प्रायः पेय (पीने के योग्य सुपाच्य फलों का रस आदि तथा अणुव्रत आदि) आदि की चिकित्सा अधिक श्रेष्ठ होगी॥१७॥
Meaning : As you are suffering from delusion-fever which has resulted in severe lust (tÃÈõā) due to the intake of adverse food, i.e., indulgence in sense-pleasures, and as your strength is diminishing progressively, medicine comprising liquid-food, etc., (easily digestible fruit-juice, etc., and minor vows, etc.) is advised.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- यदि कोई मनुष्य प्रकृति के विरुद्ध अथवा मात्रा से अधिक भोजन करने के कारण ज्वर आदि से पीडित होकर तीव्र प्यास से व्याकुल होता है तो ऐसी अवस्था में चतुर वैद्य उसकी शारीरिक शक्तिको क्षीण होती हुई देखकर समुचित औषधि के साथ उसके लिये पीने के योग्य फलों के रस या दूध आदिरूप सुपाच्य भोजन की व्यवस्था करता है। कारण कि स्निग्ध व गरिष्ठ भोजन से उसका उक्त रोग कम न होकर और भी अधिक बढ़ सकता है। इस विधि से उसका रोग सरलता से दूर हो जाता है । ठीक इसी प्रकार से जो प्राणी इन्द्रियविषयों में मुग्ध होकर उस विषयतृष्णा से अतिशय व्याकुल हो रहा है तथा इसीलिये जिसकी स्वाभाविक आत्मशक्ति क्षीणता को प्राप्त हो रही है उसके लिये सद्गुरु प्रथमतः अणुव्रत आदि के परिपालन का जिनका परिपालन वह सरलता से कर सकता है- उपदेश करता है। कारण कि वैसी अवस्था में यदि उसे महाव्रतों के धारण करने का उपदेश दिया गया और तदनुसार उसने उन्हें ग्रहण भी कर लिया, परन्तु आत्मशक्ति के न रहने से यदि वह उनका परिपालन न कर सका तो इससे उसका और भी अधिक अहित हो सकता है । अतएव उस समय उसके लिये अणुव्रतों का उपदेश ही अधिक कल्याणकारी होता है ॥१७॥