भावार्थ :
विशेषार्थ- यदि कोई मनुष्य प्रकृति के विरुद्ध अथवा मात्रा से अधिक भोजन करने के कारण ज्वर आदि से पीडित होकर तीव्र प्यास से व्याकुल होता है तो ऐसी अवस्था में चतुर वैद्य उसकी शारीरिक शक्तिको क्षीण होती हुई देखकर समुचित औषधि के साथ उसके लिये पीने के योग्य फलों के रस या दूध आदिरूप सुपाच्य भोजन की व्यवस्था करता है। कारण कि स्निग्ध व गरिष्ठ भोजन से उसका उक्त रोग कम न होकर और भी अधिक बढ़ सकता है। इस विधि से उसका रोग सरलता से दूर हो जाता है । ठीक इसी प्रकार से जो प्राणी इन्द्रियविषयों में मुग्ध होकर उस विषयतृष्णा से अतिशय व्याकुल हो रहा है तथा इसीलिये जिसकी स्वाभाविक आत्मशक्ति क्षीणता को प्राप्त हो रही है उसके लिये सद्गुरु प्रथमतः अणुव्रत आदि के परिपालन का जिनका परिपालन वह सरलता से कर सकता है- उपदेश करता है। कारण कि वैसी अवस्था में यदि उसे महाव्रतों के धारण करने का उपदेश दिया गया और तदनुसार उसने उन्हें ग्रहण भी कर लिया, परन्तु आत्मशक्ति के न रहने से यदि वह उनका परिपालन न कर सका तो इससे उसका और भी अधिक अहित हो सकता है । अतएव उस समय उसके लिये अणुव्रतों का उपदेश ही अधिक कल्याणकारी होता है ॥१७॥ |