सुखितस्य दुःखितस्य च संसारे धर्म एव तव कार्यः ।
सुखितस्य तदभिवृद्धयै दुःखभुजस्तदुपघाताय ॥१८॥
अन्वयार्थ : हे जीव ! तू चाहे सुख का अनुभव कर रहा हो और चाहे दुख का, किन्तु संसार में इन दोनों ही अवस्थाओं में तेरा एक मात्र कार्य धर्म ही होना चाहिये । कारण यह है कि वह धर्म यदि तू सुख का अनुभव कर रहा है तो तेरे उस सुख की वृद्धि का कारण होगा, और यदि तू दुख का अनुभव कर रहा है तो वह धर्म तेरे उस दुख के विनाश का कारण होगा॥१८॥
Meaning : O soul! In this world, whether you are happy of miserable, dharma* should be your only pursuit. If you are happy, dharma will increase your happiness; if you are miserable, it will remove your misery.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- जो प्राणियों के दुख को दूर करके उन्हें उत्तम सुख में धारण कराता है वही धर्म कहलाता है। इससे धर्म के दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं- दुख को दूर करना और सुख को प्राप्त कराना। इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि प्राणियों को चाहे तो वे सुखी हों और चाहे दुखी, दोनों ही अवस्था में उन्हें धर्म का आचरण करना चाहिये। कारण कि यदि वे सुखी हैं तो इससे उनका वह सुख और भी वृद्धिंगत होगा, और यदि वे दुखी हैं तो इससे उनके उस दुख का विनाश होगा ॥१८॥
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