भावार्थ :
विशेषार्थ- ऊपर श्लोक 18 में जो धर्म को सुख का कारण और दुख का विनाशक बतलाया गया है उसमें यह आशंका हो सकती थी कि जब धर्म प्रत्यक्ष में सुख का विघातक है, तब उसे यहाँ सुख का कारण किस प्रकार कहा? कारण कि धर्माचरण में विषयभोगों के अनुभव से प्राप्त होने वाले सुख को छोडकर अनशनादिजनित दुख को ही सहना पडता है । इस आशंका के निराकरणार्थ यहां यह बतलाया है कि जिस प्रकार अंगूर, सेब एवं आम आदि उत्तम फलों की इच्छा करने वाला मनुष्य प्रथमतः कुछ कष्ट सहकर भी उन फलों को उत्पन्न करने वाले वृक्षों का जलसिंचना के द्वारा परिवर्धन एवं संरक्षण करता है, तत्पश्चात् वह समयानुसार उनसे अभीष्ट फलों को प्राप्त करके अतिशय आनन्द का उपभोग करता है । यदि वह पहिले जलसिंचनादि के कष्ट से डरकर उन वृक्षों का परिवर्धन और संरक्षण न करता तो उसे उन अभीष्ट फलों का प्राप्त होना असंभव ही था। ठीक इसी प्रकार से वर्तमान में जो इन्द्रियविषयभोगजनित सुख प्राप्त हो रहा है वह पूर्वकृत धर्म का ही परिणाम है । अतएव आगे भी यदि उक्त सुख को स्थिर रखना है तो उसके कारणभूत धर्म का आचरण अवश्य ही करना चाहिये । इससे वह धर्म फलीभूत होकर भविष्य में भी उक्त इन्द्रियविषयजनित सुखरूप फलों को स्थिर रखेगा, अन्यथा भविष्य में उससे रहित होकर दुख का अनुभव करना अनिवार्य होगा ॥१९॥ |