+ आत्मा के परिणामों से ही पुण्यऔर पाप की उत्पत्ति -
परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः।
तस्मात् पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः ॥२३॥
अन्वयार्थ : विद्वान् मनुष्य निश्चय से आत्मपरिणाम को ही पुण्य और पाप का कारण बतलाते हैं। इसलिये अपने निर्मल परिणाम के द्वारा पूर्वसंचित पाप की निर्जरा, नवीन पाप का निरोध और पुण्य का उपार्जन करना चाहिये॥२३॥
Meaning : Knowledgeable men aver that, for sure, soul-modification (ātmapariõāma) is the cause of merit (puõya) as well as demerit (pāpa). Therefore, (through pious soulmodification) you should destroy demerit (previously accumulated and fresh) and accumulate merit.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- 'शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य' (तत्त्वा. 6-3) इस सूत्र में आचार्यप्रवर श्री उमास्वामी ने यह बतलाया है कि शुभ योग पुण्य तथा अशुभ योग पाप के आस्रवका कारण है। यहां शुभ परिणाम से उत्पन्न मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति को शुभ योग तथा अशुभ परिणाम से उत्पन्न मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति को अशुभ योग समझना चाहिये। इस प्रकार जब पुण्य का कारण अपना ही शुभ परिणाम तथा पाप का कारण भी अपना ही अशुभ परिणाम ठहरता है तब आत्महित की अभिलाषा करने वाले भव्य जीवों को अपने परिणाम सदा निर्मल रखने चाहिये, जिससे कि उनके पुण्य का संचय और पूर्वसंचित पाप का विनाश होता रहे ॥२३॥