पैशुन्यदैन्यदम्भस्तेयानृतपातकादिपरिहारात।
लोकद्वयहितमर्जय धर्मार्थयश:सुखायार्थम् ॥३०॥
अन्वयार्थ : हे भव्य जीव ! तू परनिन्दा दीनता, छल-कपट, चोरी और असत्य भाषण आदि पापों को छोडकर उनके प्रतिपक्षभूत सत्यसंभाषण एवं अचौर्य व्रतों को-जो दोनों ही लोक में हितकारक हैं- धारण कर। कारण कि ये सबके लिये धर्म, धान, कीर्ति और सुख के कारणभूत हैं ॥३०॥
Meaning : O worthy soul! For securing dharma , wealth, renown and happiness, here and hereafter, renounce traits such as back-biting, dejection, deceitfulness, theft, and falsehood.
भावार्थ