पुण्यं कुरुष्व कृतपुण्यमनीदृशोऽपि
नोपद्रवोऽभिभवति प्रभवेच्च भूत्यै ।
संतापयञ्जगदशेषमशीतरश्मिः
पद्मेषु पश्य विदधात्रि विकाशलक्ष्मीम्॥३१॥
अन्वयार्थ : हे भव्य जीव ! तू पुण्य कार्य को कर, क्योंकि पुण्यवान् प्राणी के ऊपर असाधारण भी उपद्रव कुछ प्रभाव नहीं डाल सकता है। इतना ही नहीं बल्कि वह उपद्रव भी उसके लिये सम्पत्ति का साधन बन जाता है। देखो, समस्त संसार को संतप्त करने वाला भी सूर्य कमलों में विकासरूप लक्ष्मी को ही करता है ॥३१॥
Meaning : O worthy soul! Acquire merit . Even bizarre mishaps cannot affect those with merit. On the contrary, these mishaps become sources of their glory and wellbeing. See, the sun which torments the whole world brings about prosperity of bloom in the lotuses.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार सूर्य दूसरों को संतापकारक भले ही हो, किन्तु वह कमलों को तो प्रफुल्लित ही करता है, उसी प्रकार जो उपद्रव अन्य पापी प्राणियों के लिये कष्टदायक होता है वही पुण्यात्मा जीवों के लिये सुख का साधन बन जाता है । देखो, अग्नि प्राणघातक है यह सब ही अनुभव करते हैं, परन्तु वह प्रज्वलित भयानक अग्नि भी सीता महासती के लिये जलरूप परिणत हो गई थी। यह सब उस पुण्य का ही प्रभाव है । इसीलिये सुख की अभिलाषा करने वाले भव्य जीवों के लिये पाप कार्यों को छोडकर सदा पुण्य कार्यों में प्रवृत्त होना चाहिये ॥३१॥
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